मृत्यु : एक शाश्वत सत्य य पहेली (कविता)
नियति ही तो भेजती है,क्या तू खुद आती है ,
मगर दोष क्यों इंसानों पर तू मड़ जाती है.
देखते ही देखते एक जीते जागते इंसानको ,
एक लौटा भर राख के ढेर में बदल देती है.
क्या ! कब ! कैसे ! और क्यों ? हे राम !
और एक आह जुबां से तब निकल जाती है.
दबे पाँव आती है तू चुपके से बिना कोई आहट के ,
और रूह को हमारी तन से खिंच ले जाती है .
ख़ुदकुशी ,ह्त्या ,जानलेवा हादसा या असाध्य रोग,
बहाने चाहे कोई भी हो तू तो अपना फ़र्ज़ निभाती है .
यह तो हम ही है इस जगत की माया में फंसे मुर्ख इंसा ,
तेल जितना होगा तन मैं उतनी ही तो जलेगी बाती .
यही चिता बारी -बारी अपनी और सब को बुलाती है .
इस नश्वर देह को सजाते सँभालते पालते है अमरता का ख्वाब,
देखकर हमारी मुर्खता को कुदरत हम पर हंसती है.
इस आती जाती श्वास का कोई भरोसा नहीं ,नाही इस तन का ,
शाश्वत इस मृत्यु से मात्र प्रभु-भक्ति ही तारती है.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें