नयी उम्र की नयी फसल(ग़ज़ल )
नयी उम्र की नयी फसल ,
बहकी हुई भटकी हुई नस्ल .
नस्ल तो है यह आदम जात ,
भूल गयी जो अपनी ही शक्ल .
भौतिकता औ आधुनिकता ने ,
कुछ इस तरह दिया इसे बदल .
शराफत ,तहजीब और मुहोबत ,
दिल नहीं इनमें पर काफी अक्ल .
विदेशी भाषा ,संस्कृति और लिबास ,
पूरी तरह गोरों की करते है यह नक़ल .
यह लिखेंगे वतन का मुस्तकबिल !
वतन की इज्ज़त को करते है धूमिल .
यह नस्ल तो सगी नहीं अपने माँ-बाप की ,
उनके अरमानो/ज़ज्बातों को देते है कुचल .
बचाना है गर देश का भविष्य तो जागना होगा ,
ज़हरीली उग रही इस पौध को जड़ से उखाड़ना होगा.
और पैदा करनी होगी देशहित में नयी उपयोगी फसल.
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