कहाँ गए वोह लोग ?कहाँ गया वोह ज़माना ? (ग़ज़ल)
कहाँ गए वो लोग जिनकी आईने सी शख्सियत थी.
खुदा से जो उनको मिला दे ऐसी उनकी हैसियत थी .
तबियत में सादगी औ ऊँचे ख़यालात जीने का मयार ,
जिन्दादिली ,फराकदिली और रहम दिली उनमें थी .
वतन परस्ती में तो कोई उनका सानी नहीं था ,न होगा ,
लुटा सकें अपने तन-मन -धन ,ऐसी जाबाज़ी उनमें थी,
समाज के रहबर ,इंसानियत के पुजारी कहा जाये जिन्हें ,
सड़े-गले रिवाजों /रिवायतों को तोड़ने की हिम्मत इनमें थी.
बड़े-बुजुर्गों और नारी जाति के सम्मान और सुरक्षा के लिए ,
कमजोरों औ बेसहारों के हक के लिए उनकी आवाज़ उठती थी.
कर्म के फल के अपेक्षा अपने कर्तव्य को महत्त्व देने वाले ,
कर्म-योग त्याग ,दान ,धेर्य और तपस्या ही उनकी पूंजी थी .
दौलत-शोहरत का नशा न था ,न थी तब दिखावे की रीत ,
सच्चेऔर पाक ज़ज्बातों के बंधन में बंधी रिश्तों की डोर थी.
मगर अब वोह बात कहाँ ,जो पहले ज़माने में थी कभी ,
अब वोह महान माताएं कहाँ रही जो इंसानों को जन्म देती थी.
वोह जो ज़माना था ''ऐ अनु'' इंसानियत का स्वर्णयुग था ,
अब जो हो रहा पतन इंसानियत का ,क्या ये कल्पना भी की थी .
कहाँ गए वो लोग जिनकी आईने सी शख्सियत थी.
खुदा से जो उनको मिला दे ऐसी उनकी हैसियत थी .
तबियत में सादगी औ ऊँचे ख़यालात जीने का मयार ,
जिन्दादिली ,फराकदिली और रहम दिली उनमें थी .
वतन परस्ती में तो कोई उनका सानी नहीं था ,न होगा ,
लुटा सकें अपने तन-मन -धन ,ऐसी जाबाज़ी उनमें थी,
समाज के रहबर ,इंसानियत के पुजारी कहा जाये जिन्हें ,
सड़े-गले रिवाजों /रिवायतों को तोड़ने की हिम्मत इनमें थी.
बड़े-बुजुर्गों और नारी जाति के सम्मान और सुरक्षा के लिए ,
कमजोरों औ बेसहारों के हक के लिए उनकी आवाज़ उठती थी.
कर्म के फल के अपेक्षा अपने कर्तव्य को महत्त्व देने वाले ,
कर्म-योग त्याग ,दान ,धेर्य और तपस्या ही उनकी पूंजी थी .
दौलत-शोहरत का नशा न था ,न थी तब दिखावे की रीत ,
सच्चेऔर पाक ज़ज्बातों के बंधन में बंधी रिश्तों की डोर थी.
मगर अब वोह बात कहाँ ,जो पहले ज़माने में थी कभी ,
अब वोह महान माताएं कहाँ रही जो इंसानों को जन्म देती थी.
वोह जो ज़माना था ''ऐ अनु'' इंसानियत का स्वर्णयुग था ,
अब जो हो रहा पतन इंसानियत का ,क्या ये कल्पना भी की थी .
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें