तकदीर का फ़साना (ग़ज़ल)
जिंदगी के साथ शुरू हुआ जिसका फ़साना ,
मिली और बिछड़ी जो बचपन की सखी की तरह .
बचपन से जो ख्वाब सजाये ,अरमान पाले ,
इसकी बदौलत रूठ गए महबूब की तरह .
हमें किसी ने ना समझा ,ना हम समझा पाए,
निभाते रहे मगर दुश्मनों से भी दोस्तों की तरह .
सूना था कभी की हर मुसाफिर की मंजिल होती है,
हमारी मंजिल का कोई निशाँ नहीं ,चलते रहेकिसी तरह .
ज़हन की कशमकश के सबब दिखता है सिर्फ अँधेरा ,
अपने दिल में उम्मीद की शम्मा जलाये किस तरह .
नाकामयाबी से भरी उफ़ ! यह पुर कैफ जिंदगी ,
खुशियाँ हमारे दर पर आये तो आयें किसतरह .
हमारी आँखों को अश्कों का दरिया सा बना डाला ,
अब भी भरा नहीं इसका जी ,सताती है हमें हर तरह .
खुदा है या नहीं, और क्या है उसकी रहमत ,
बंदगी का फ़र्ज़ फिर भी निभाते है किसी तरह .
गर मिल जाये खुदा तो उससे पूछेंगे ज़रूर ,
क्यों भूल गया हमें एक भूले हुए साथी कीतरह .
यह तकदीर का फ़साना और कौन सुने तेरे सिवा,
एक बार तो सुन लो ,बस एक बार मेहरबां की तरह .
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