अरे आतंकियों … ( कविता )
अरे आतंकियो !
मेरे देश के दुश्मनों !
तुम्हें नहीं पता की ,
किस तरह बे-मौत मारे जाते हो तुम ,
कोई नहीं करने आता अंतिम सस्कार।
तुम्हें नहीं पता के,
सड़कों पर पड़ी लाश पर तुम्हारी ,
आते-जाते लोग थूकते हैं.
गली के सारे कुत्ते लाश को तुम्हारी
बेरहमी से नोच -नोच खाते हैं.
लाजिमी है तुम्हारे लिए यह दुत्कार।
तुम्हे नहीं पता ,के
अपन्रे प्यारो की जुदाई क्या होती है ?
दर्द ,संताप ,वेदना क्या है ,
और पीड़ा क्या होती है ?
हैवानियत जो रहती है सर पर सवार।
तुम्हे बस इतना पता है ,
की दौलत कमानी है ,चाहे जैसे भी।
मासूम व् निर्दोष इंसानों की हत्या करनी है ,
दहशत व् अशांति फैलानी है ,चाहे जैसे भी।
ईमान का क्या है ,हो जाये तो हो जाये दागदार।
तुम्हें तो पता है ,है ना !
तुम्हारा नहीं है कोई परिवार।
न अपने और ना अपनों का प्यार।
नहीं है जब कोई ,तो इंसानियत सिखाता कौन?
तभी तो पड़े तुम पर ''ऐसे '' निम्न संस्कार।
तुम्हें नहीं पता तो तुम जान लो ,
खुदा की नज़र से कितना गिर चुके हो ,
अपनी औकात पहचान लो।
तुम्हें वेह्शी कहना , वेह्शी का अपमान होगा ,
तुम तो दानव हो , इंसान नहीं,
अपनी घिनौनी / डरावनी सूरत
आईने में देख लो.
व्यर्थ है तुमसे पूछना ,
की तुम्हें पता है ,
तुम्हें पता लगाकर करना भी क्या ?
क्योंकि तुम्हें वास्ता है गोली ,बारूद ,
एटमी ,हथियारों से।
तुम्हारे ज़ुल्म के शिकार बेबसों की
घायल रूहों और आहों से तुम्हें वास्ता क्या ?
मगर एक दिन इन सबकी बद-दुआओं से होगा ,
तुम्हारा समूल नाश।
सुन लो अरे आतंकियो ,
हो जाओ खबरदार।
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