[ १९९४ में आकाशवाणी इंदौर से प्रसारित कविता ]
प्रकृति ने छेड़ा संगीत ( कविता )
प्रकृति ने छेड़ा एक मधुर संगीत ,
क्षितिज में गूंज उठा एक प्रेम गीत .
तरु - मालिकाओं में हुई सरसराहट ,
खग-वृन्दों में भी हुई चहचहाहट.
सर-सरिता की धवल -धारा लगी बहने ,
मानो चुपके से वह लगी कुछ कहने .
कुञ्ज -लता पुंजो पर बैठे हुए मधुप वृन्द ,
सूना रहे हैं वह भी जैसे गान -वृन्द .
गहन गिरी के अंक में मेघों का डेरा ,
कुछ पल के लिए मन ने उधर हेरा .
उनके गर्जन में उठती सी कभी आरोह ,
और शांत हो जाये तो ज्यों अवरोह .
अमूल प्रपात जो बहता हुआ अविरल ,
उसमें उठता हुआ कल-कल ,छल -छल .
गरजते हुए मेघों से बरसती बरखा ने ,
भीगो दिया जद-चेतन को इस सखा ने .
टिप- टिप करती बुँदे ,औ कलरव करती नदिया, ,
भवरों की गुंजन व् श्याम मेघों की अंगडाईयां .
मिला रहे हैं यह सारे किसकी ताल में ताल ,
किसके नियंत्रण में है यह मोहक सुरताल .
ढूढने को की वह संगीतकार है कहाँ ! ,
चल पड़े उसी दिशा पर मन ने कहा जहाँ .
चलते - चलते पग मेरे थम से गए ,
सुनकर वीणा की तान जम से गए .
दृष्टि घुमाकर देखा मैने चारों ओर ,
टिक कर रह गए मेरे चक्षु उस ओर .
दूर किसी कुटिया के आँगन में ,
देनदारों से भरे हुए उस कानन में.
बैठा था कोई भद्र वीणा कर में लेकर ,
सारा भू-मंडल झूम रहा था वशीभूत होकर .
है यह रचना अवश्य इसी संगीतकार की ,
छेड़ी थी जिसने वीणा से तान प्रेम-गीत की .
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