पेशावर के बाल-हत्याकांड मैं शहीद हुए नन्हे शहीदों की माओं की व्यथा
काश ! तुम ना जाते स्कूल (कविता)
ऐ मेरे लाल !
मेरे कलेजे के टुकड़े !
काश ! तुम ना जाते स्कूल।
लौट आते कैसे भी ,
किसी भी कारण से ,
कहते माँ ! मैं कुछ गया हूँ भूल।
झूठ बोलकर , बहाना बनाकर ,
या कोई ज़िद पकड़कर ,कह देते ,
माँ ! आज मुझे नहीं जाना स्कूल !
तुम्हारा तो मन नहीं था ,
और तुमने मुझसे कहा भी था।
मगर तुमनेजिद क्यों नहीं की
क्यों मेरा कहा मान तुम चले गए स्कूल।
काश ! तुम ज़िद करते ,
रोते -बिलखते ,
कोई भी बहाना करते ,
तो मैं तुम्हें ना भेजती स्कूल।
मगर क्या करूँ मैं ,
बड़ी बेबस थी मैं ,
तुम्हारी तालीम में कोई हर्ज़ा ना रहे ,
कामयाबी की रफ़्तार से तू पीछे ना रहे।
मेरे बच्चे ! तभी भेजा मैने तुम्हें स्कूल।
मगर मैं गलत थी ,
अनहोनी से अनजान थी ,
वरना मेरे लाल ! मैं तुम्हें ना भेजती स्कूल।
काश ! मुझे पता होता ,
कुछ ज़रा सा भी अंदेशा होता।
शिक्षा का मंदिर नहीं ,
अधर्मियों ,आतंकियों का डेरा बनने वाला है स्कूल।
तो मेरी गोद यूँ सुनी ना होती ,
मेरी आँखें भी अश्कों से भरी ना होती ,
ना ही उम्र का पश्चाताप होता ,
की मैने क्यों भेजा आपने लाडले को स्कूल।
आज सुभह ही तो नहला-धुला कर ,
सजा-संवार कर काला टिका लगाकर ,
बड़े लाड से ,मनुहार से तुन्हें भेजा था स्कूल।
चॉकलेट -टॉफी का लालच देकर ,
बढ़िया से लंच का वायदा कर,
तुम्हारे पिता तुम्हें छोड़ने गए थे स्कूल।
मगर हाय मेरा भाग्य लूटा ,
मेरे घर -संसार को किसने लूटा ,
कर दिया किसने मेरे जीवन में अन्धेरा।
हँसता -खेलता गया था तू ,
फिर ताबूत में क्यों लौटा तू।
किस वहशी ,हत्यारे , दानव ने गोलिओं से ,
छलनी किया मेरे कलेजे के टुकड़े को।
मेरे भोले -भले,मासूम से नूर-ऐ- चश्म को
जिसने भी बेदर्दी से बुझाया ,
उसे खुदा जहन्नुम रसीद करे।
यह एक दुखी , संतप्त ,माँ की बददुआ है.
और यदि इन सियासत दारों ने
हम माओं साथ नहीं किया इन्साफ ,
नहीं करेंगे हम उन्हें अपने लाडलों का खून माफ़।
और ना ही कोई माँ अपने नौनिहालों को भेजेगी स्कूल।
हाय ! क्या ही अच्छा होता ,
मैं ना भेजती तुम्हें स्कूल।
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