रंग बदलते इंसान /गिरगिट (कविता)
जाने किस तरह एक इंसान ,
रूप लेता है अपना बदल।
माहिर है वो इस कला में ,
गिरगिट में है इतनी अक्ल !
कुछ समय पहले जो शख्स ,
ज़ुबान से ज़हर रहा था उगल।
अब देखो तो उसी के मुख से ,
झर रहे हैं किस कदर फूल।
मौसम की तरह से ही जो ,
लेता है अपने मिज़ाज़ बदल।
है यह प्रपंची ,छलिया अवश्य ,
सदा करता है अपनों से ही छल।
अचंभित हो जाते होंगे तुम भी ,
दबाकर दांतों तले अपनी उंगल।
कैसे समझते होंगे तुम हे प्रभु ! ,
तुम हो भोले ,निष्कपट ,निश्छल।
रचना की तुमने सम्पूर्ण सृष्टि की ,
असंख्य जीव-जंतु , नर ,जल- थल।
नर को बनाकर पृथ्वी का अधिपति ,
उसे दे दी अत्यधिक बुद्धि व् बल।
अब दे ही दी है इतनी बुद्धि व् बल ,
अब तुम खुद ही इससे निबटो ,
फैला रखा भयंकर मायाजाल कपटी ने ,
सर्वबुद्धिशाली हो तुम इस जाल को काटो।
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