ख़ुदकुशी (ग़ज़ल)
कहने लगी है अब मुझसे मेरी न-उम्मीदी ,
तू हर यक़ीन से मुंह अपना मोड़ ले।
बंद करदे सब दरवाज़े और खिड़कियां ,
गुस्ताख़ हवाओं को अंदर आने से रोक दे।
कर ले महफ़िल -ए -दुनिया से किनारा ,
तन्हाई के सागर में खुद को डुबो दे।
बंद कर दिए तक़दीर ने कामयाबी के सब रस्ते ,
तो उन रास्तों पर तू दिवार खड़ी कड़ी कर दे।
हो गयी है इंतेहा अब जद्दोजहद और कशमकश की ,
तू अब अपने अरमानो /ख्वाइशों का गला घोंट दे।
क्यों देखा था ऐसा ख्वाब ,जिसकी तामील नहीं होनी थी ,
ख़्वाब होते तो हसीन मगर ज़हरीले ,यह मान ले.
कुछ कागज़ बर्बाद किये ,और कई कलमें तोड़ीं ,
समझ लिया खुद को शायर ,अब दीवानगी छोड़ दे।
मौत से कहती है तू अब आ भी जा ,मगर वह आती नहीं ,
बिखेर कर अपने दिल के टुकड़े कागज़ पर ख़ुदकुशी करले।
रोती है रूह ज़ार -ज़ार और आहें दर्द की भर-भर कर ,
जबन वह भी ना सुने हरजाई ,तो पुकारना छोड़ दे.
जीवन संघर्ष में पराजय स्वीकार कर चुके मन की आतंरिक पुकार, निराशावादी कविता I
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