धर्म क्या है? ( कविता)
इंसानों को इंसानों से लड़ना सिखाये।
अभिमान में आकर ओरों का खून बहाए.
अपने -अपने धर्मं-ग्रंथों का प्रचार -प्रसार कर
खुद को सबसे ऊंचा बताए.
अपनी -अपनी मंडली /मजलिस बनाकर ,
दूसरों के लिए साजिश रचाये।
मजहबी तालीम देकर अपने बच्चों को
दूसरे बच्चों से दूर बैठाये.
एक ही चमन के फूल होकर ऐसी दुर्भावना !
एक ही मंज़िल के मुसाफिर होकर ,
यह कैसी कटुता ?
एक ही पिता की संतान होकर ,
परस्पर यह कैसी शत्रुता ?
रास्ते बेशक अलग-अलग है अपने ,
इबादत करने का ढंग भी अलग है अपना।
तो क्या !
मंज़िल तो अपनी एक ही है।
खुदा कहो उसे या परमात्मा ,
उसी की दी हुई है यह आत्मा।
हमारी जीवन -शक्ति तो एक ही है।
गीता हो या क़ुरान ,
बाइबल हो या गुरु-ग्रन्थ साहिब।
चाहे कोई भी धर्म ग्रन्थ हो।
शिक्षा उसमें एक ही है.
इंसान हो इंसान से प्यार करो.
है सन्देश भी एक ही ,
मानवता /इंसानियत का पालन करो।
हाँ ! वास्तव में धर्म है यही।
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