मुक्तक
देशवासियों ज़रा रखो होंसला ,
दिन ज़िंदगी के ज़रूर बदलेंगे।
लूटने वालों ने है अब तक लूटा ,
अब बसाने वाले भी आयेगे।
बस थोड़ा सा और सब्र करलो ,
अच्छे दिन शीघ्र ही आएंगे।
इंसान की ज़िंदगी की बस इतनी सी है दास्तान ,
दो घड़ी का मेला है और फिर सब सुनसान।
छोटी सी ज़िंदगी है और बेशुमार हसरतें ,तौबा !
फानी है धोका है सब ,कहाँ समझता है इंसान।
अरे ओ मेघा ! कब बरसेगा रे तू।
क्या मुझे रुला कर ही बरसेगा तू।
अब आ भी जा ,मेरे जी को न तरसा ,
लुंगी तेरी बलैयां अगर बरसेगा तू।
कौन सा जतन करूँ ,करूँ कौन उपाए।
तेरे बिन बरखा रानी ,कुछ न सुझाये।
तेरे दर्शन को ऐसे तड़पूँ ,जैसे की मीन ,
क्यों तू मुझे एक बून्द के लिए तरसाये।
दीपक की तो प्रकृति है यही , ऊपर की और उठना ,
यह तो हवाएँ हैं ऐसी करती मार्ग से विचलित बुझाने को।
उसी तरह आत्मा की नियति है ,परमात्मा का सानिध्य ,
माया बहका देती है उसे , चौरासी के चक्र में भटकने को।
दीपक की तो प्रकृति है यही , ऊपर की और उठना ,
यह तो हवाएँ हैं ऐसी करती मार्ग से विचलित बुझाने को।
उसी तरह आत्मा की नियति है ,परमात्मा का सानिध्य ,
माया बहका देती है उसे , चौरासी के चक्र में भटकने को।
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