अमर गायक स्व. मुहम्मद रफ़ी साहब की पुण्य -तिथि पर विशेष
आफ़ताब -ऐ- मौसीक़ी : मुहम्मद रफ़ी (ग़ज़ल)
बंदा था या था वह युसूफ -जमाल ,
माहताब ज़मीं पर उतर आया हो जैसे।
हाजी था, नमाजी था थी खुदा सी शक्ल ,
जन्नत का कोई फरिश्ता हो जैसे।
मौसीक़ी ही थी उसकी सबसे बड़ी दौलत ,
उसका दीन -ओ ईमान हो जैसे।
आवाज़ थी शरबती और गुलों सी रंगीली ,
जज़्बातों के तमाम रंगों मैं ढली हो जैसे।
इंसानियत जिसका मजहब-ओ -इबादत ,
कहाँ मिलेगा ऐसा उम्दा इंसान रफ़ी था जैसे।
तभी तो रोइ थी खुदाई भी उसकी जुदाई पर,
ऑंसुओ की सी बरसात पलकों से छलकी ऐसे।
आज है वही रमजान का महीना और ईद -मुबारक ,
मगर वह हरदिल-अज़ीज़ ,वह नूर-ऐ- चश्म ही नहीं ,
जिसके बीना दिल हमारा टुकड़े-टुकड़े हुआ जाता है ऐसे।
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