अग्नि ! तेरे रूप अनेक ( कविता )
हे अग्नि ! कितने है ,
तेरे अनेक रूप .
कहीं ज्वाला है तू ,
और कहीं है धुप .
कभी नन्ही सी लपटों में सिमटा ,
नन्हा सा दिया बन करे प्रकाश .
और कभी प्रचंड होकर ,
छु ले तू आकाश .
एक रूप नन्हा सा तेरा ,
दूर करता अँधेरा है ,
और एक रूप भयंकर सा तेरा ,
जीवन में कर देता अँधेरा है .
बस इतना ही नहीं !,
तू तो है हमारे दिल में भी जला करती .
प्रेम ,विरह ,नफरत ,बैर ,
और लालसायों केरूप में है जगा करती .
प्रेम व् विरह के रूप में ,
तो तू होती है शीतल .
मगर नफरत ,क्रोध व् बैर के रूप ,
में तेरे सारी दुनिया जाती है जल .
जिस प्रकार एक नन्ही सा चिंगारी बन तू ,
दहक उठती है हवा के मेल से .
और फिर और दहक उठती है ,
ज़रा से पेट्रोल से .
उसी प्रकार शक की एक नज़र ,
बदल जाती है बैर में .
अपने ही बदल जाते है
तब गैर में .
दुश्मनी की आग या वासना की आग ,
कर देती है जीवन का विनाश .
तू कर देती है हर रूप मनुष्य का सर्वनाश .
तेरी आग में तो हमारा वैसे ही
सारा जीवन है जलता रहता .
किसी न किसी चिन्तायों के रूप में सदा ,
एक चिता पर है जला करता .
मगर इसके बावजूद !,
तेरी इन लपटों के बाद भी ,
अंतिम लपटों में है जलना पड़ता .