गंगा माँ व् जल के नाम दो कवितायेँ
हे गंगा माँ !
द्रवित होता है बहुत मन ,ता है बहुत मन ,फूट-फूट कर रोना चाहता है .
अपनी बेबसी ,लाचारी पर जो ,
खून का घूंट पीकर रह जाता है .
जी चाहता है मेरा ,
अपने आंसुओं से सही ,
तुझे निर्मल कर दूँ .
तेरे लहराते शीतल आँचल को ,
तारों से पुनह सजा दूँ .
दूर कर सारी गंदगी ,
तेरे जीवन को निर्मल कर दूँ .
हे माँ !
आ तुझे फिर संवार दूँ .
तुझे छु न सके कोई पाप ,
अधर्म से रखना चाहूँ तुझे दूर.
परमात्मा की अमानत है तू .
और धरा की पुत्री .
कोसों दूर रहे तुझसे व्यभिचार ,
अनाचार और भ्रष्टाचार .
ऐसी कोशिश रहेगी मेरी .
हे माँ !
बोल क्या करूँ मैं?
बहुत पीड़ा होती है ,
तेरी स्थिति को देखकर
मन व्याकुल हो जाता है .
की तुने अपनी कृपा का पात्र
बनाया इस मनुष्य जाति को .
क्या यह उसके योग्य है ?
यह मुर्ख प्राणी खुद के साथ-साथ
सारी सृष्टि को मिटाने पर तुला है .
अपनी अकर्मण्यता से अनगर्ल लालसा से
वशीभूत हुआ यह पामर तेरे दंड का पात्र है.
यह अपराधी है तेरा और तेरे अन्य संतानों का भी.
हे माँ !
मेरा यह जी चाहता है की तेरी आर्त वाणी में ,
मैं अपनी अपना स्वर भी मिला दूँ .
महादेव का आह्वान कर उन्हें सहायता हेतु विवश करूँ .
मैं ऐसी हाहाकार मचायुं प्रचंड .
जी चाहता है मेरा की तेरे सुरम्य ,स्वर्गिक ,देवतुल्य
जीवन हेतु
मैं अपना सर्वस्व अर्पित कर दूँ .
२, जल है तो जीवन है.
जल है तो जीवन है ,
नहीं रहेगा तो क्या करोगे ?
नहीं होगा प्यास बुझाने को ,
तो क्या अपने आंसू पियोगे ?
तुम्हारी आने वाली पीडी भी ,
या तो बचेगी नहीं !
अगर बच भी गयी तो ,
वोह भी अपने आंसू ही पीयेगी .
तुम्हारा तो सम्पूर्ण जीवन की
आधारशिला है यह जल .
नहीं रहा तो क्या करोगे ?
टूट कर बिखर जाओगे ,
समूल नष्ट हो जायेगा तुम्हारा.!
क्यों बैरी बने हुए हो अपनी नस्लों के.
एक बार सोचो तो सही!
तुम क्या गँवा रहे हो .
क्या रह जायेगा तुम्हे जीवन में ?
तुम्हारी दैनिक ज़रूरतें ,
तुम्हारी भूख -प्यास ,
तुम्हारी स्वछता और तुम्हारा स्वास्थ.
सब कुछ निर्भर करता है इस जल पर .
यह है प्राण ,तो यह है अमरत्व भी .
यह श्रृंगार पृथ्वी का ,और उसका तत्व भी .
यह है सत्व भी संस्कृति व संसृति का भी .
हर प्राणी ,जड़ -चेतन इससे पोषित है .
एक तुम्हारा ही नहीं .इनका भी अधिकार है जल पर .
इसीलिए मेरी तुमसे विनती है ,
कृपया करके अपने जीवन को बचायो .
इस जल को बचायो .
अपने आने वाली नस्लों , संस्कृति ,
संसृति ,व जड-चेतन को बचाओ .
अपनी पृथ्वी को बचाओ .
जल को बचाओ ,
क्योंकि जल ही जीवन है .
जल के बिना जीवन नहीं !
हे गंगा माँ !
अपनी बेबसी ,लाचारी पर जो ,
खून का घूंट पीकर रह जाता है .
अपने आंसुओं से सही ,
तुझे निर्मल कर दूँ .
तेरे लहराते शीतल आँचल को ,
तारों से पुनह सजा दूँ .
हे माँ !
आ तुझे फिर संवार दूँ .
तुझे छु न सके कोई पाप ,
अधर्म से रखना चाहूँ तुझे दूर.
परमात्मा की अमानत है तू .
और धरा की पुत्री .
कोसों दूर रहे तुझसे व्यभिचार ,
तेरी स्थिति को देखकर
मन व्याकुल हो जाता है .
की तुने अपनी कृपा का पात्र
बनाया इस मनुष्य जाति को .
क्या यह उसके योग्य है ?
यह मुर्ख प्राणी खुद के साथ-साथ
सारी सृष्टि को मिटाने पर तुला है .
अपनी अकर्मण्यता से अनगर्ल लालसा से
वशीभूत हुआ यह पामर तेरे दंड का पात्र है.
यह अपराधी है तेरा और तेरे अन्य संतानों का भी.
हे माँ !
मैं अपनी अपना स्वर भी मिला दूँ .
महादेव का आह्वान कर उन्हें सहायता हेतु विवश करूँ .
मैं ऐसी हाहाकार मचायुं प्रचंड .
जी चाहता है मेरा की तेरे सुरम्य ,स्वर्गिक ,देवतुल्य
जीवन हेतु
मैं अपना सर्वस्व अर्पित कर दूँ .
तुम्हारी भूख -प्यास ,
तुम्हारी स्वछता और तुम्हारा स्वास्थ.
सब कुछ निर्भर करता है इस जल पर .
यह है प्राण ,तो यह है अमरत्व भी .
यह श्रृंगार पृथ्वी का ,और उसका तत्व भी .
यह है सत्व भी संस्कृति व संसृति का भी .
हर प्राणी ,जड़ -चेतन इससे पोषित है .
एक तुम्हारा ही नहीं .इनका भी अधिकार है जल पर .
इसीलिए मेरी तुमसे विनती है ,
कृपया करके अपने जीवन को बचायो .
इस जल को बचायो .
अपने आने वाली नस्लों , संस्कृति ,
संसृति ,व जड-चेतन को बचाओ .