दो शेर
कोई आज भी है जो रूह बनकर ,
मुझमें समाता ज़रूर है।
अकसर चुप सा रहता है मगर ,
मुझे देखकर शर्माता ज़रूर है।
मैं कैसे केह दूँ कि मुझसे
ख़फ़ा है वोह शख्स।
आज भी वक़्त निकाल कर ,
रेत पर मेरा नाम लिखता ,
और फिर मिटाता ज़रूर है।
इश्क़ वोह खेल नहीं जो ,
कमज़ोर दिलवाले खेल सकें।
रूह तक कांप उठती है ,
सदमें सहते -सहते।
कोई आज भी है जो रूह बनकर ,
मुझमें समाता ज़रूर है।
अकसर चुप सा रहता है मगर ,
मुझे देखकर शर्माता ज़रूर है।
मैं कैसे केह दूँ कि मुझसे
ख़फ़ा है वोह शख्स।
आज भी वक़्त निकाल कर ,
रेत पर मेरा नाम लिखता ,
और फिर मिटाता ज़रूर है।
इश्क़ वोह खेल नहीं जो ,
कमज़ोर दिलवाले खेल सकें।
रूह तक कांप उठती है ,
सदमें सहते -सहते।
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