अज्ञात शिशु ( कविता)
ऐ नन्हे से शिशु ! ,
बता तू कौन है ?
मेरे प्रश्नो पर
क्यों हो रहा मौन है ?
है तो तू निश्चय ही
हम मनुष्यों के ह्रदय में ,
पशु -पक्षी ,जिव-जंतु ,वन ,नदियां ,
पर्वत और सारे वलय में।
यह सारी क़ायनात तेरा खिलौना ही तो है ,
यह सारा आकाश तेरा बिछौना ही तो है।
जिस पर बैठा तू खेलता है नए-नए खेल।
हम प्राणियों के जीवन और उस जीवन में
भाग्यों का बनना -बिगड़ना और
अंत में इस जीवन का मृत्यु से मेल।
तोड़कर फिर जोड़ना ,
जोड़कर फिर तोड़ देना ,
हमारे ह्रदय को ,
हमारे सपनो को ,
अच्छा लगता है ना !
तुझे यह रोमांचक खेल।
प्रकृति कि हर ऋतू ,
दिन ,माह, और वर्ष ,
यह समय है तेरे इशारों पर।
तेरे नन्हे से हाथों में यह सारा,
दुनिया का कारोबार है।
हम तो है मूढ़ ,अज्ञानी ,
हम में इतनी समझ कहाँ है !
तेरे रूप को समझने कि हम में ,
सामर्थ्य कहाँ है !
तू है आनादि ,अनंत , निराकार ,
तेरा अस्तित्व इस दुनिया के ज़र्रे-ज़र्रे में
रवां है।
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