आहें ( ग़ज़ल )
दिल के टूटने की माना कोई आवाज़ नहीं होती ,
मगर टूट जाते हैं आशियाँ किसी की सर्द आहों से.
किसी को रोंद कर क़दमो तले सर उठाते हैं गुमान से ,
कभी उनके भी निशाँ मिट जाया करते हैं राहों से।
गुनाहगार को कब एहसास होता है अपने गुनाहों का !,
वक़्त आने पर मगर बच नहीं पता खुदा की निगाहों से।
खून का घूंट पीते हुए जो रोते हैं मासूम ; तन्हाईयों में,
वोह रहमतगार रहमत बख्शता है अपनी पनाहों से।
मैं भी खड़ी हूँ उसके दर पर फैलाकर अपना दामन ,
है मुझे भी उम्मीद की भर देगा वोह इसे अपनी चाहों से।
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