ख़त ( ग़ज़ल)
जाने किसके ख़त का रहता है हमें इंतज़ार ,
जानते हैं जबकि की कोई नहीं जवाब देने वाला।
दौड़ पढ़ते हैं ज़रा सी आहट पर हम ,
जैसे कोई पैगाम हो आने वाला।
पूछते फिरते हैं रफीकों से की ''ख़त आया !'',
ज़ज्बा होता है उनकी नज़रों में सवाल वाला।
उलझन सी छोड़ देते हैं वोह ज़हन में हमारे,
सरश्के -गम में डूब जाता है दिल मतवाला।
यह हमारी तकदीर का सितम नहीं ,तो क्या है? ,
की वोह नहीं है जिसकी तलब ने दीवाना बना डाला।
फिर यह सोचकर ख़त लिखकर फाड़ देते हैं,
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