नश्तर ( ग़ज़ल)
जुबान से उनकी निकलते हैं ,
इस कदर लफ़्ज़ों के नश्तर।
लहू सा रिसने लगता है और ,
दिल ज़ख्म से जाता है भर .
रोक सकते नहीं इस तूफान को ,
क्या करें हम बेबस हैं मगर .
सी सकते नहीं हम भी लब ,
ख़ामोशी की इन्तेहा बतादें गर ,
किस तूफ़ान को रोकें ,
और किसे आने दें बाहर .
छोटी सी तो जिंदगी है यह ,
और वोह बैठे हैं गिले-शिकवे लेकर ,
यह तूफान क्या गुजरेगा ,
वक़्त जायेगा यूँ ही गुज़र .
इन नश्तरों को रोक दो ,खुदाया !
लहू -लुहान हो जायेगा मेरा जिगर .
मुझ में नहीं है हुनर ,न ही आदत ,
की करूँ मैं भी नश्तरों का पलटवार .
क्या करें ! तुमने ही तो बनाया है मुझे ,
एक परवाना सा ,दीवाना सा शायर .
अब तुम्ही बनो मेरे निगेहबान , ऐ खुदा!
गुज़र जाने दो बला ,जाना चाहे यह जिधर .
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