फर्क (ग़ज़ल)
होती नहीं इस जहाँ में ,
इंसानों की एक सी फितरत .
दिखाई देता है जो सामने ,
मगर कुछ और है हकीक़त .
कुदरत है हैरान और खुदा भी,
कहाँ है छुपी इसकी असलियत .
उसने तो बनाया था सबको एक सा ,
और एक सी भरी थी दिलों में मुहोबत .
मुहोबत की तो बात ही छोड़ो ,
बची कहाँ रह गयी इन्सानियत. .
रूह एक थी मिटटी भी एक थी ,
फिर क्यों बदल गयी सीरत . ?
उसने तो नहीं बनाये थे दरो-दिवार ,
फिर कहाँ से सीखी तकसीम की आदत.
यह वोह इंसान ही नहीं ,जाने कौन है ?
अपने ही कौम के खून से रंगी है जिसकी शख्सियत.
अपने ही कौम के खून से रंगी है जिसकी शख्सियत.
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