धरती का क्षोभ
दर्द जब धरती का ,
आसमान ने पूछ लिया।
खुश थी अब तक तुम ,
अब तुम्हें क्या हुआ।
महकती थी ,लहलहाती थी ,
हर समय तुम्हारी खेतियाँ .
हर चेहरे पर ख़ुशी और,
बहारों सी थी मस्तियाँ .
अब सब कहाँ है ? कहाँ है ?
सुनकर आसमान का सवाल ,
धरती माता रो पड़ी .
कैसे करे बयां वोह ,
उलझन में खो गयी।
छुपे होते हैं आँखों में ,
दिल के लाखों अफसाने .
धरती के दर्द को जान लिया आसमान ने।
कहा ,'' हे धरती ! बोल ,
तेरी चेतना कहाँ गयी?.
तू है एक शक्ति ,
क्या यह भूल गयी!
जब तक होती हद है ,
इंसानियत की दुनिया में .
दया ,करूणा , प्रेम व भाईचारे
जैसे गुण हों जन -जन में .
तब तक तू है माँ इस धरती के रूप में।
परन्तु हो जाए गर
हैवानियत का साम्राज्य .
करना पड़ेगा तुझे तब सहनशीलता का त्याज्य .
तेरा रोद्र रूप सुन !
बन सकता है कहर।
विनाश ही विनाश होगा
तब हर प्रहर .
सिखाने को इन्हें सबक
तुम्हें बदलना होगा।
झिंझोड़ कर ,डराकर ,या धमकाकर
इन इंसानों को जगाना होगा।
हे धरती ! तुम्हें ,
बदलना होगा।