नियति की फांस
यह रिश्ता है या गुलदस्ता ,
मगर फूलों के साथ -साथ ,
ज़हरीले व तीखे काँटों से भरा।
दोस्ती और दुश्मनी दोनों ही
भावों को समेटे हुए।
किसी के लिए तो यह
समझोता होगा।
और किसी के लिए होगा
आराध्य .
मगर हमारे लिए है बोझ .
समझोता इसे समझने वाले निभाने की
महज कोशिशें करतें जाते है ता उम्र .
अराध्य समझने वाले भी निभा लेते है
एक तरफ़ा हो भले ही .
उनमें होगा जिगर ,
इनमें होगा सब्र ,
हम में नहीं है।
हमारे लिए तो है यह असह्य बोझ .
हमारे लिए है यह फांस .
हम तो नहीं निभा सकते इसे एक पल के लिय भी .
सारी उम्र की तो बात ही छोड़ा।
यह तो है हमारे नज़र में एक अनचाही वस्तु ,
जिसे नियति ने जाने-अनजाने
हमारे हवाले कर दिया .
जिससे छुटकारा पाने की हम रोज़ जी तोड़
कोशिशें करते हैं
सोचते रहते है कैसे इससे दामन अपना छुड़ाया जाये।
किसी नदी ,कुएं ,त्तालब या समुन्द्र में डुबो दें ,
ताकि यह गल जाये।
किसी आग में फेंकदें ,की यह जल जाये।
किसी पहाड़ या खाई में फेंक दें
की किसी शीशे की तरह टूट जाये .
कहीं दो गज ज़मीं के अंदर गाड़ दें .
की यह नष्ट हो जाये।
तस्वीर होती तो फाड़ देते .
शीशा गर होता तो तोड़ देते।
कोई गली या शहर , गॉव या देश होता तो
छोड़ देते।
हम क्या करें इसका ?
कैसे इसको खुद से अलग करें ?
जो धोखे से ही सही ,
हमें मिल गया है
जिसने दीमक बनके हमारे दिल ,दिमाग,
हमारा सारा वजूद को नष्ट कर दिया है।
हाय यह मज़बूरी है !
यह कैसा दुर्भाग्य है ?
हमें भी झेलना पड़ेगा इसे ,
झूठ मुठ के हँसते हुए या ,
खून के आंसू रोते हुए ,
क्योंकि कुदरत से मिली हुई यही
नियति है हमारी।
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