मेरे आस-पास ( कविता)
मैं रहती हूँ सदा परेशां ,
कुछ -कुछ उदास ,
तो कुछ हैरान .
मन उचाट सा रहता है।
बहलता नहीं कहीं भी ,
एक बेचैनी सी छाई
रहती है .
कैसे कहूँ ?
क्या कहूँ ?
नहीं मिलते शब्द मुझे
अपने हालात बयां करने को।
मगर चुप भी तो नहीं रहा जाता!
दम घुटने सा लगता है ,
जब आकर घेर लेते हैं मुझे ,
किन्तु, परन्तु ,पर,मगर ,
क्या करूँ?
बस में जो नहीं है मेरे ,
यह हालात .
किसी पर आरोप -प्रत्यारोप
क्या करूँ ,
इसीलिए रहती हूँ ,
खुद से खफा-खफा।
मेरी अकर्मण्यता ,
मज़बूरी या कमजोरी .
इन्हीं की देन है यह असहाय से शब्द,
यह समाज किस गर्त में जा रहा है?
हर आदमी पतन -उन्मुख क्यों है ?
सियासतदारों की कलाईयाँ हैं चूड़ियों से भरी ,
जंगली भेड़ियों का जंगल-राज .
क्यों ?
मासूम ,नाज़ुक,अधखिली कलियाँ
मसली जा रही हैं ,
कभी अपनों तो कभी भेड़ियों के हाथों .
क्यों?
क्यों है चारो तरफ लाशों के ढेर और
बह रही हैं खून की नदियाँ?
कानून ,न्याय-व्यवस्था की तो धज्जियाँ उड़ चुकी हैं
जाने कब से .
पुलिस खुद बन गयी रक्षक से भक्षक .
क्यों?
सामाजिक मर्यादा , संस्कृति ,सभ्यता व संस्कारों को
लग चुकी है बेशर्मी की दीमक .
क्यों? क्यों? क्यों?
यह " क्यों '' शब्द कोंधता रहता है
काले डरावने बादल की तरह मेरे मन-आकाश में .
और मैं छटपटा कर रह जाती हूँ।
तिलमिलाती हूँ ,
जलती रहती हूँ अपनी ही आग में ,
और इस आग में घी डालकर भड़काने का काम करते हैं ,
यह शब्द ,
किन्तु ,परन्तु, पर, मगर ,
कहने को यह मात्र शब्द हैं .
जो हमारी अक्षमता के प्रतीक हैं।
और मेरी भी .
मगर यह तो सच्चाई हैं .
मैं इनसे मुंह मोड़ नहीं सकती .
मैं यह हालात भी बदल नहीं सकती .
येही है नियति मेरी ,
सहना ही होगा मुझे
जो हो रहा है मेरे आस-पास .
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