बासी फूल ( कविता)
इस रिश्ते को क्या नाम दूँ ?
कागज़ी या बासी फूल !
जो नसीब में पाए हैं मैने .
एक ही डाली के फूलों का
होता है भाग्य जुदा-जुदा।
औरों को मिली बहारें और
और मेरा दुर्भाग्य ,
मुझे मिला पतझड़ .
दूर से तो यह दिखते हैं बड़े सुन्दर व् लुभावने .
मगर यह धोखा है बस आँखों का .
जो मैने भी खाया था .
कैसे समझायुं ! की कागज़ के फूल हैं ,
असली नहीं।
जो कुछ अगर असली भी हैं तो वोह
बासी .
सड़े हुए मैल-कुचैले दुर्गन्ध युक्त .
जो मेरे हिस्से आये हुए हैं .
क्या करूँ मैं इनका?
नदी में बहा दूँ ,
ज़मीं में गाड़ दूँ ,
जल दूँ या कहीं फेंक दूँ
क्या करूँ !
कुछ भी नहीं कर सकती ऐसा .
मैने जिगर ही नहीं पाया ऐसा
मगर इनकी दुर्गन्ध से मेरा जीना दुश्वार है।
इनके काँटों से मेरी आत्मा लहू-लुहान है।
छुओ तो नफरत सी होती है।
मैं इन्हें धो भी नहीं सकती .
बहरी रूप को तो धो दूँ मगर
भीतर का क्या करूँ ?
सदियाँ गुज़र जाएँगी,कई जनम गुज़र जायेंगे ,
मगर इनके दाग नहीं धुल सकते।
कई वर्ष गुज़र गए ,
मैं इनसे सामजस्य नहीं बैठा पाई .
घनिष्ठता की बात छोड़ा ,
मित्रता भी कर नहीं पाई .
अब तो इसी उम्मीद में जीवित हूँ
की कोई तो पारिजात मिले .
इन बसी फूलों से मुझे निजात मिले .
गर ना प सकूँ तो कृपया यह उपकार करना।
अंतिम यात्रा में मेरी इन्हें मुझे दूर रखना
सारी उम्र तो यह मुझे !,
मेरे जीवन रूपी वृक्ष को खाते रहे
दीमक की तरह .
हैं यह भी दीमक ही तो ,
यह बासी फूल।
------------------------------ ------------------------------
इस रिश्ते को क्या नाम दूँ ?
कागज़ी या बासी फूल !
जो नसीब में पाए हैं मैने .
एक ही डाली के फूलों का
होता है भाग्य जुदा-जुदा।
औरों को मिली बहारें और
और मेरा दुर्भाग्य ,
मुझे मिला पतझड़ .
दूर से तो यह दिखते हैं बड़े सुन्दर व् लुभावने .
मगर यह धोखा है बस आँखों का .
जो मैने भी खाया था .
कैसे समझायुं ! की कागज़ के फूल हैं ,
असली नहीं।
जो कुछ अगर असली भी हैं तो वोह
बासी .
सड़े हुए मैल-कुचैले दुर्गन्ध युक्त .
जो मेरे हिस्से आये हुए हैं .
क्या करूँ मैं इनका?
नदी में बहा दूँ ,
ज़मीं में गाड़ दूँ ,
जल दूँ या कहीं फेंक दूँ
क्या करूँ !
कुछ भी नहीं कर सकती ऐसा .
मैने जिगर ही नहीं पाया ऐसा
मगर इनकी दुर्गन्ध से मेरा जीना दुश्वार है।
इनके काँटों से मेरी आत्मा लहू-लुहान है।
छुओ तो नफरत सी होती है।
मैं इन्हें धो भी नहीं सकती .
बहरी रूप को तो धो दूँ मगर
भीतर का क्या करूँ ?
मगर इनके दाग नहीं धुल सकते।
कई वर्ष गुज़र गए ,
मैं इनसे सामजस्य नहीं बैठा पाई .
घनिष्ठता की बात छोड़ा ,
मित्रता भी कर नहीं पाई .
अब तो इसी उम्मीद में जीवित हूँ
की कोई तो पारिजात मिले .
इन बसी फूलों से मुझे निजात मिले .
गर ना प सकूँ तो कृपया यह उपकार करना।
अंतिम यात्रा में मेरी इन्हें मुझे दूर रखना
सारी उम्र तो यह मुझे !,
मेरे जीवन रूपी वृक्ष को खाते रहे
दीमक की तरह .
हैं यह भी दीमक ही तो ,
यह बासी फूल।
------------------------------
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें