मैं नहीं चाहती ,
और यह भी नहीं चाहती की
अपने मन-मंदिर में
मेरी मूरत सजाकर ,
मुझे पूज .
मुझ पे फुल चड़ा ,
मैं नदी नहीं बनना चाहती .
मैं पतंग हूँ और तू डोर.
डोर के छोड़ देने से भी पतंग भटक जाती है ,
या तो बादलों के पार चली जाती है उड़ कर .
या टूट कर या तो बिजली की तारों में फंस कर फट जाती है ,
यदि न भी फटी तो जाने किसके हाथों में आ जाएगी.
मैं पतंग भी नहीं बनना चाहती .
मैं लता हूँ और तू वृक्ष .
तू बांध ले मुझे अपने प्रेम-पाश में ,
लता बंधी रहती है जैसे वृक्ष से .
मैं लता बनना चाहती हूँ .
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