मजबूर
कितने हो लाचार तुम ,हे बेजुबान कमज़ोर जीव .
मिटा सकते नहीं अपना ज़ख्म ,
बहती रहे जिसमें से पीप .
दर्द तो होता होगा तुम्हें ,
जब खिचती होगी तुम्हारी खाल।
तड़प उठते हो ,कराहते हो ,
कोई नहीं समझता हाल।
मनुष्य होते तो देते प्रत्युतर ,
अपने ज़ख्मों का।
मगर तुम हो कितने निस्सहाये ,
सहते रहते हो प्रहार ,मनुष्यों के ज़ुल्मों का।
कल्पना करे यदि मानव तो ,
सिहर उठेगा।
करे कोई उनसे पशु -तुल्य व्यवहार ,
तो तड़प उठेगा .
था मनुष्य भी कभी तुम्हारी तरह ,
यह वो भूल जाता है क्यों ?
सिर्फ एक बुध्धि का ही तो अंतर है,
इस पर इतराता है क्यों ?
बुध्धि तुमसे अधिक क्या मिल गयी ,
की खुद को महान समझ बैठे .
करके जड़-चेतन पर एकाधिकार ,
इस धरती को अपना जहान समझ बैठे।
धर्म की आड़ में ,
किया जाता है अधर्म।
कभी खून बहाकर ,
तो कभी दुष्कर्म .
तुम अनजाने से मनुष्य के ,
स्वार्थ की बलि चढ़ जाते .
और तुम्हारे बच्चे उम्रभर,
वात्सल्य को तरस जाते।
इन मासूम आँखों से छलकते ,
आंसूयों को नहीं देखता कोई।
की इस मौन दर्द में
तेरी आत्मा कितनी रोई।
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