दिया और जीवन
दीया और जीवन ,
जलता है तब तक ,
जितना भरा जाये उसमें
तेल और श्वास .
अंत तक जलती रहती है,
इनकी गुलाबी और रंगहीन लौ।
और जब बुझने लगती है तो
हो जाती है सहसा तेज़ .
यह लक्षण नहीं होते ,
ईश्वर से पुनह जीवन-दान के।
दीये को तो मिल जाता है पुनह तेल।
परन्तु जीवन को नहीं मिलते और श्वास .
उसे मिलते हैं केवल कुछ श्वास .
दीया और जीवन में ,
होता है एक और साम्य .
लड़खड़ाते हुए शने -शने ,
क्षीण हो जाती है ,
इसकी लो और उसकी श्वासें .
बुझ जाती हैं दोनों लेकर
अंतिम धुयाँ और श्वासें .
दर्द बुझने का और अंतर्मन की टीस ,
दोनों की किसी ने भी ना जानी .
मगर जब उस प्रकाश -पुंज से मिल गए ,
तभी अपनी हस्ती उन्होंने जानी .
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