वृक्ष -- हमारे मित्र
हे मनुष्य !
तुम क्यों हमे समूल नष्ट करने पर तुले हो ?.
जैसे की हम इस धरती परजीनेका अधिकारनहीं .
जैसे की हम इस iधरती पर बोझहैं ,
अरे ! बोझहम नहीं तुम हो .
तुम हो तुम !
तुम स्वार्थी ,लालची और अभिमानी ,
अपने सुख केलिए अपनोंकोही सताते हो .
तुम्हारी भूख है इतनी बड़ी की
तुम किसी काभी लहू पी सकते हो
खून बहा भी सकते.
जब मिलजाये तुम्हें कुर्सी ,
तो तुम्हारा ईमान डगमगा जाताiहै .
क्या वादे !क्या कसमें !
तुमसब भूल जाते हो .
नशा कुछऐसा चढ़ जाताहै एश्वर्या का ,
की तुम्हें तो किसी की चीखे भी सुनाई नहीं देती .
तुम्हें तो बस इस धरती
पर शासन करना भाता है .
तुम इस धरती के सम्पूर्ण जीवजन्तु ,jजद्चेतन और तो और
अपनी जाती पर भी शासन करना चाहते हो.
क्यों ?
तुम्हें यह अधिकार किसने दिया ?
इश्वर ने तो नहीं दिया .
तुम खुद ही सम्राट बन बैठे .
खुद परत शासन करना सीखो ,
तुम क्या समझते हो !
की तुम इस धरती पर सबसे सर्वश्रेष्ठ ,
सुयोग्य हो अक्लमंद हो .
हो सकता है .
मगर यह सच नहीं iहै .
सच क्याहै यह मुझसे सुनो !
पृथ्वी और इसकी अमूल्य धरोहर iकी संभाल करना
समस्त प्राणियों पर दया करना ,उनकी रक्षा करना
कुदरत के नियमो केसाथ खुद को ढालना ,
उसके सञ्चालन में सहयोग करना .
यही सच्चा और अतिउत्तम गुण है मानव का .
iयहीमानवधर्म है .
में तुम्हारा मित्र हूँ .
मेरा सम्पुरणजीवन इस धरती के tसमस्त प्राणियोंऔर जड़ चेतन पर न्योछावर है .
तुम मुझसे फल लो दवा बनायों ,
भी बनायो ,
चाहे जो करो .
मगर मुझेप्यार दो .
अपनी सुरक्षा दो .
मुझेतुमसऔर कुछ नहीं चाहिए .
अरे ! तुम्हारे आखिरी अंतिम यात्रा में भी ,
में तुम्हारा साथीहूँ .
तो यह अलगाव कैसा !
में तुम्हारा हूँ मित्र !
मगर मुझपर अन्य प्राणियों का भी हक
है
ज़रा उनके विषय में भी सोचो .
आखिर कर हम हैं तो एक
परिवार के सदस्य .
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें